राजनीति
असंभव की कला
है और इस अवसर
को भारत के
सभी राजनीतिक दलों
से अधिक बेहतर और
कोई नहीं जानता
है। कल के कट्टर दुश्मन आज के जिगरी दोस्त बन जाते हैं। विचारधाराओं को शर्मिंदा कर दिया जाता है। एक दूसरे पर अतीत में की गई तीखी टिप्पणियाँ समय आने पर भुला दी जाती हैं। उनका धर्म केवल "अंत भला तो सब भला है।"
जैसे
ही अगले आम
चुनाव करीब आने लगते
हैं, गठबंधन की
राजनीति का दौर वापस आ जाता है।
गठबंधन
सरकारें अतीत में
नियमित रूप से
और बार-बार
विफल रही हैं लेकिन तब भी वे उन असफल राजनीतिक दलों के लिए वे एकमात्र उत्तर प्रतीत होती हैं, जिनके पास उनके अपने अस्तित्व को बचाने का और कोई विकल्प नहीं दिखता है। इन राजनीतिक दलों को पता है कि चुनावों में संभावित जीत का एकमात्र तरीका किसी भी तरह अपने मतों और मतदाताओं को साथ में लाना है और कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा इकट्ठा कर शक्तिशाली भारतीय जनता पार्टी को हराना है, जिसके लिए चुनावों में जीतना आदत-सी बन गई है।
इन
दलों के नेताओं
को लगता है कि भारतीय मतदाता को फिर एक बार मूर्ख बनाकर यह विश्वास दिलाया जा सकता है कि इन कट्टर राजनीतिक दुश्मनों ने अपने मतभेदों को त्याग दिया है और वे अपने प्रदेश या उससे भी आगे मतदाताओं के हित के लिए साथ आने पर राज़ी हो गए हैं!
बिहार
में साथ आने की
गठबंधन "व्यवस्था"
का हश्र देखिए। नीतीश कुमार और लालू यादव हमेशा आपस में भिड़ा करते थे लेकिन फिर भी वे मतदाताओं के गले में यह उतारने में कामयाब हो गए कि वे बिहार के लाभ के लिए अपने मतभेदों को दफना कर साथ आने के इच्छुक हैं। कुछ ही महीनों में उनके इस तथाकथित मजबूत रिश्ते में दरारें दिखने लगीं। इन दोनों नेताओं और उनकी पार्टियों के बीच कुछ भी आम नहीं था। वे "भाजपा को हराने" के नाम पर साथ आए और बहुत ही शर्मनाक है कि वे साथ रह पाने में सक्षम नहीं थे। उनका संबंध विच्छेद होना तय ही था।
बुआ मायावती और भतीजे अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच में सबसे असंभव गठबंधन हाल के उप-चुनावों में हुआ और फिर एक बार वे एक दूसरे के लिए अपने लंबे समय से खोए प्यार का हवाला देकर मतदाताओं को मनाने में कामयाब रहे। उनकी सफलता ने उन्हें यह घोषणा करने के लिए प्रोत्साहित किया कि वे आम चुनावों के लिए फिर एक बार साथ आएंगे। वे कुछ सीटें भी जीत सकते हैं लेकिन उनकी भिन्न विचारधाराएँ उनका कब तक साथ दे सकती है या उन्हें अलग-थलग कर देती है? तब क्या होगा जब वे महत्वपूर्ण शासकीय ओहदे जैसे राज्यसभा की सीटें और आकर्षक सरकारी पदों को साझा करना चाहेंगे? साथ बंधी मुट्ठी तब कितनी जल्दी खुल जाएगी?
कम्युनिस्ट
कांग्रेस को पसंद
नहीं करते हैं
लेकिन वे साथ
आने को तैयार
हैं। शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के कांग्रेस के साथ हमेशा मतभेद रहे हैं लेकिन उन्हें आसानी से भुला दिया जा सकता है। शिवसेना ने हमेशा भाजपा के साथ चुनाव लड़ा है। उप्र. उप-चुनावों के बाद की एक छोटी-सी कमजोरी ने उन्हें अपना रास्ता तय करने के लिए प्रोत्साहित किया लेकिन यह तो समय बताएगा कि वे कांग्रेस के साथ गठबंधन की तलाश करेंगे या भाजपा में वापस आ जाएँगे। चंद्रबाबू नायडू बहुत आवेश में बाहर चले गए थे लेकिन अविश्वास प्रस्ताव लाने में ही उनकी भव्य योजनाएँ सिफर हो गईं। वे अब क्या करने वाले हैं? क्या वे फिर से अपने मतदाताओं को मना पाएँगे और एनडीए में वापस आएँगे?
महागठबंधन,
जिसकी अगले आम चुनावों
से पहले सभी
राजनीतिक दलों द्वारा
चर्चा की जा
रही है। जिस चुनौती पर विचार किए जाने की ज़रूरत है वह यह है कि इस असंभव पंचमेल समूह में किस नेता को संभावित प्रधान मंत्री के रूप में घोषित किया जाएगा जो बहुमत से गुजरने का प्रबंधन करता है।
व्यक्ति
के रूप में
जब मैं महागठबंधन
के भावी शासन के संभावित परिदृश्य
के बारे में निम्नलिखित तरीके से सोचता हूँ तो मैं काँप जाता हूँ।
क्या
हम ऐसी सरकार की कल्पना कर सकते हैं जिसमें मायावती प्रधान मंत्री हो, राहुल गांधी
उप प्रधान मंत्री, मारन वित्त मंत्री, शरद पवार रक्षा
मंत्री, मुलायम सिंह
विदेश मंत्री, ममता
बनर्जी रेल मंत्री
और लालू यादव
गृह मंत्री?
फिर
छोटे क्षेत्रीय दलों
के प्रतिनिधि होंगे
जिन्हें महत्वपूर्ण मंत्री
पद दिए जाएंगे। ऐसे मंत्रिमंडल की कल्पना कीजिए जिसमें शिवसेना, बीजेडी, टीडीपी, द्रमुक और अन्य दलों के दर्जनों मंत्री होंगे। के साथ कैबिनेट की कल्पना करो। प्रत्येक व्यक्ति अपने साथ अपनी पार्टी के नेताओं के व्यक्तिगत एजेंडे लाएगा और अपनी चुनौतियों और मुद्दों के शीघ्र समाधान की तलाश करेगा।
और,
हमें यह भी नहीं
भूलना चाहिए कि
यशवंत सिन्हा और
शत्रुघ्न सिन्हा जैसे
निराश भाजपा नेताओं के
अगले चुनावों में
भाजपा के खिलाफ
काम करने के आसार हैं,
वे भी अपने
हिस्से की माँग
करेंगे और मंत्रिपरिषद
में शामिल होने
की उम्मीद रखेंगे !
क्या
यह गठबंधन की सरकार होगी
या टकराव की सरकार ?
हम
इसे जिस तरह
से भी देखें , परिदृश्य
डरावना है।
क्या
राहुल गांधी और
उनकी कांग्रेस पार्टी
क्षेत्रीय क्षत्रपों के इर्दगिर्द
बैठना स्वीकार करेगी? क्या अन्य सभी वरिष्ठ क्षेत्रीय नेता राहुल गांधी को अपना नेता मानेंगे? क्या ये सभी नेता कभी भी अपने तमाम मतभेदों को दूर कर सकते हैं? या कि वे शुतुरमुर्ग की तरह गठबंधन के धर्म का पालन करेंगे और बाकी तमाम बातों को भुला देंगे जैसे कि मनमोहन सिंह ने यूपीए 2 के दौरान तमाम भ्रष्टाचारों
को अनदेखा करने का मार्ग
चुना था?
सरकार
ने प्रधान मंत्री
नरेंद्र मोदी के
नेतृत्व में जितने
भी वादे किए
थे, उन्हें पूरा किया है। कुछ पत्रकारों द्वारा की जा रही सारी विवेचनाओं को भूल जाइए, जिन्होंने इस सरकार में अपनी प्रमुखता को काफी हद तक खो दिया है। ऐसे पत्रकार हर समय आलोचना करने के लिए कुछ न कुछ तलाशते रहते हैं और उम्मीद करते हैं कि उनके कुछ आरोप टिके रहे। धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यकों का अपमान ऐसे विषय हैं जिनके बारे में लोग बात करना पसंद करते हैं।
हर
आर्थिक मापदंड में इसे वर्ष 2014 में
की तुलना में
काफी बेहतर बताता है। दुनिया भर के देशों की मंडली में भारत का कद ऊँचा हुआ है। भारत अब दुनिया में नेतृत्व की भूमिका निभाने के लिए अच्छी स्थिति में है। हमारी सीमाएँ सुरक्षित हैं। हमारे विदेशी मुद्रा भंडार उच्च रिकॉर्ड पर हैं। हमारे उद्योग-धंधे अच्छे चल रहे हैं। काले धन पर लगाम लग गई है। हम दुनिया भर के उन कुछ चुनिंदा देशों में से हैं जहाँ पूरे देश में एकल कर प्रणाली लागू है। इस सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार का एक भी मामला नहीं है।
मतदाता
स्पष्ट बहुमत के
लाभ को जानते
हैं जिससे देश
में एक स्थिर
सरकार आती है। वे समझते और पहचानते हैं कि इस सरकार ने केंद्र में क्या बदलाव लाया है और उन्होंने बुनियादी ढांचे में पर्याप्त सुधार देखा है, लेकिन उन्हें यह भी पता है कि बहुत कुछ करने की जरूरत है। केंद्र में एक-दूसरे से लड़ने वाले क्षेत्रीय दलों को वापस लाना प्रतिकूल कदम होगा और हर मतदाता ऐसे स्वार्थी गठजोड़ की कमजोरियों को पहचानता है।
पाँच
साल की एक
अवधि किसी भी सरकार
द्वारा किए गए
वादों को अच्छी
तरह से पूरा
करने के लिए
पर्याप्त नहीं हो
सकती है। इस सरकार द्वारा कई प्रमुख संरचनात्मक परिवर्तन किए गए हैं और इन परिवर्तनों के प्रभाव आने वाले सालों में महसूस किए जाएँगे। भारत हर साल रिकॉर्ड स्तर पर बढ़ रहा है और अगले 5 वर्षों में 8% से अधिक सालाना वृद्धि की अच्छी स्थिति में है।
भाजपा
कार्यकर्ताओं को अपना
मस्तिष्क शांत रखकर ज़मीनी स्तर पर कार्य करने की ज़रूरत है
सिर
नीचे रखने और
जमीन के स्तर
पर बारीकी से
काम करने की
जरूरत है ताकि
वे इस सरकार
की सभी उपलब्धियों
को दोबारा शुरू
कर सकें। भाजपा नेताओं को अपना मुँह बंद रखने और विवादास्पद विषयों पर मूर्खतापूर्ण बयान करने से खुद को रोकना सीखना होगा। कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी कितनी मजबूत इच्छा प्रधान बनने की है, इन नेताओं के लिए भली सलाह यही है कि वे "कोई टिप्पणी नहीं" करें।
मतदाता
अगले चुनावों में
भाजपा को आसानी से बहुमत
के साथ वापस
लाएँगे और मूल्यांकन
करेंगे कि सरकार
किए गए वादों
को किस तरह पूरा करती है।
भाजपा
और उसके नेतृत्व
को चुनावों में
भाग लेने में
घबराहट नहीं होनी
चाहिए।
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लेखक गार्डियन फार्मेसीज
के संस्थापक अध्यक्ष हैं. वे ५ बेस्ट सेलर पुस्तकों – रीबूट- Reboot. रीइंवेन्ट Reinvent. रीवाईर Rewire: 21वीं सदी में सेवानिवृत्ति का प्रबंधन, Managing
Retirement in the 21st Century; द कॉर्नर ऑफ़िस, The Corner
Office; एन आई फ़ार एन आई An Eye for an Eye; द बक स्टॉप्स हीयर- The Buck Stops Here – लर्निंग ऑफ़ अ # स्टार्टअप आंतरप्रेनर और Learnings of a #Startup Entrepreneur and द बक स्टॉप्स हीयर- माय जर्नी फ़्राम अ मैनेजर टू ऐन आंतरप्रेनर, The Buck
Stops Here – My Journey from a Manager to an Entrepreneur. के लेखक हैं.
ट्विटर : @gargashutosh
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ब्लॉग : ashutoshgargin.wordpress.com |
ashutoshgarg56.blogspot.com
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