Monday, 19 November 2018

राफेल के साथ राहुल गाँधी और उनकी काँग्रेस कहाँ जा रही है?



आख़िर ऐसी क्या वजह है कि जिसके चलते राफेल पर राहुल गाँधी अपने तथाकथित राजनीतिक करियर के साथ सबकुछ दाँव पर लगाने के लिए तैयार हैं?

मुझे यकीन है कि राजनेता होने के नाते वे जानते होंगे या उन्हें इस बात की सलाह भी दी गई होगी कि उन्हें सारे तीर एक ही तरक़श में नहीं रखने चाहिए। मतदाताओं के बीच उनकी व्यक्तिगत विश्वसनीयता हमेशा कम ही रही है और ससंद में और संसद के बाहर भी वे गड़बड़ करते नज़र आए हैं और सोशल मीडिया पर तो वे लगातार मंडराते ही रहते हैं। ऐसे में मुझे हैरत होगी यदि उन्हें इस बारे में कुछ पता न हो।

आगामी प्रादेशिक और लोकसभा चुनावों में व्यक्तिगत रूप से उनका बहुत कुछ दाँव पर लगा है। यदि कर्नाटक की बात छोड़ दे तो काँग्रेस ने राहुल गाँधी के नेतृत्व में लगभग हर चुनाव में मुँह की खाई है और कर्नाटक में भी सरकार बनाने के लिए गठबंधन सहयोगी का समर्थन लेना पड़ा और सहयोगी दल को गठबंधन के नेता के रूप में स्वीकार करने पर सत्ता मिल पाई। निश्चित ही अपनी शिकस्तों को काँग्रेस पार्टी पूरी तरह से अलग परिप्रेक्ष्य में पेश करेगी और केवल कुछ उप-चुनावों में मिली जीत की बात करती है।

मंदिर यात्राओं के दौरान किताब में और नर्म हिंदुत्व को दर्शाते हुए अपनी पहचान हिंदू समुदाय के साथ एक ओर तकनीकी तौर पर "जेनऊ धारी" के रूप में करने की वे हर संभव कोशिश करते हैं और दूसरी ओर सरकार के हर कदम पर सवाल उठाते हैं। ख़ास तौर पर जो विस्मित करती है, वह है उनकी असंसदीय (अशोभनीय) भाषा, जो चुनावों के करीब आने के साथ और अधिक से अधिक विशेषण एकत्रित करती प्रतीत होती है।

बात करने के लिए बहुत कम मुद्दे हैं, पिछले पूरे 4 वर्षों में भ्रष्टाचार का कोई मुद्दा सामने नहीं आया है और सरकार के कई महत्वपूर्ण सकारात्मक बदलावों के चलते कोंसने का कोई मौका नहीं मिल रहा है, ऐसे में राहुल गाँधी और उनके दल-बल ने राफेल मुद्दे को एकल बिंदु एजेंडे के रूप में उठा रखा है। इसी के साथ, उन्होंने प्रधान मंत्री मोदी को व्यक्तिगत तौर पर लक्षित करने का फैसला कर लिया है क्योंकि उनका मानना है कि अगर वे मोदी को चोट पहुँचाते हैं, तो वे अपने आप भारतीय जनता पार्टी को भी चोट दे सकेंगे।

राफेल विमान खरीद पर राहुल गाँधी के तर्क उदात्त से हास्यास्पद हो रहे हैं। उनकी उकताहट भरी टिप्पणियों को शेष वरिष्ठ काँग्रेस नेता पूरी वफ़ादारी से तोता पढंत की तरह दुहरा रहे हैं, क्योंकि एक बार उनके "राजकुमार" ने बात कह दी, तो उनके पास उसके अनुपालन, दोहराव और बचाव के अलावा अन्य कोई विकल्प बचता नहीं है। वरिष्ठों के सामने लगाए गए आरोपों को सत्यापित करने का कोई ठोस मार्ग नहीं है, पर उनकी पूरी रणनीति किसी भी तरह मतदाताओं के दिमाग में संदेह के बीज बोने की है।

श्री गाँधी का विश्वास निश्चित रूप से इस दर्शन पर हैं कि वे यदि कोई आरोप लगाकर लंबे समय तक रोना-गाना करते हैं, कीचड़ उछालते हैं तो थोड़ा-बहुत कीचड़ तो ज़रूर चिपकेगा। उनका मानना है कि उनके अपने परिवार और पार्टी की ख़राब आर्थिक ख़्याति के चलते जहाँ उनका हर कदम कीचड़ में धँसा है, प्रधानमंत्री मोदी भी ऐसे बेतुके आरोपों से कलंकित हो सकते हैं। वे पहचानते हैं कि उनके और उनके परिवार को मुक्ति केवल तभी मिल सकती है, जब वे किसी भी तरह मतदाताओं को यह मनवा देते हैं कि मोदी और सत्तारूढ़ दल भी "भ्रष्ट" हैं!

विपक्षी पार्टियों में से अब लगभग मृत प्राय: सीपीआई (एम) को छोड़कर अन्य कोई भी इस मामले को उठाने का फैसला नहीं कर रहा है क्योंकि राहुल गाँधी के तर्क में किसी को भी कोई औचित्य नहीं दिख रहा है।

श्री गाँधी किसी पौराणिक अनुबंध की चीर-फाड़ करते रहते हैं कि यूपीए सरकार ऐसे कोई हस्ताक्षर करने की योजना बना रही थी लेकिन किए नहीं। वे यह तुलना इसलिए करते हैं कि मानो ऐसा कोई अनुबंध एनडीए सरकार द्वारा पहले से ही निष्पादित किया गया हो और उनकी सरकार ने उस पर काम किया था। उनसे सवाल पूछा जाना चाहिए कि यूपीए सरकार के 10 वर्षों में इस पर हस्ताक्षर क्यों नहीं हुए थे? क्या कांग्रेस इस सौदे से पैसे कमाना चाहती थी, जैसे बोफोर्स मामले में किया था लेकिन संतोषजनक सौदा करने में असमर्थ रहे थे?

विशेषज्ञों के तार्किक तर्कों का मतलब उनके लिए कुछ भी नहीं है। सरकार द्वारा विस्तृत स्पष्टीकरण प्रदान किए जा चुके हैं, लेकिन उन्हें राहुल गाँधी और उनके वफादार प्रवक्ताओं ने बड़ी तत्परता से खारिज कर दिया। श्री गाँधी मनमोहन सिंह की अगुवाई में अपनी ही सरकार द्वारा बनाए कानून को खत्म करने में लगे थे, तब उनसे सत्ताधारी पार्टी के शब्दों पर विश्वास करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है!

रक्षा मंत्री के वक्तव्य का मतलब उनके और उनकी पार्टी के लिए कुछ भी नहीं है। डेसॉल्ट के सीईओ श्री एरिक ट्रैपियर द्वारा दिए गए वक्तव्यों को धांधली माना जा रहा है। फ्रांसीसी राष्ट्रपति के वक्तव्य को तज दिया गया है और प्रेरित बताकर परे कर दिया गया है। वे अपने आपके अलावा किसी पर भी विश्वास नहीं करते हैं।

सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि कीमत पर चर्चा नहीं की जाएगी और श्री गाँधी ने अदालत के मजबूत प्रतिशोध से डरते हुए बुद्धिमानी दिखाकर इस मामले में चुप रहने का विकल्प चुना है और सम्माननीय न्यायालय के विचारों पर आक्षेप नहीं किया है।

उनके पास अनुभव और समझ की बेहद कमी है और वे किसी भी कीमत पर प्रधान मंत्री बनने की अपक्व महत्वाकांक्षा रखते हैं, इसका प्रदर्शन हो चुका है। राफेल के सभी ब्योरों का खुलासा पड़ोसी देशों के साथ करने में भी उन्हें कोई चिंता नहीं है, क्योंकि उन्हें लगता है कि इस सौदे में कुछ तो ऐसा है जो शायद छिपाया गया है। फिर भले ही देश की सुरक्षा भाड़ में जाए।

श्री गाँधी बहुत ही हताश स्थिति में हैं। अपनी पार्टी की कमजोर स्थिति के चलते उन्हें चुनाव लड़ने के लिए विपक्षी नेताओं को साथ लेना होगा, पर वे महागठबंधन के नेतृत्व की चाहना करते हैं।

यदि काँग्रेस पार्टी तथाकथित महागठबंधन पर सवार होकर भी सत्ता में नहीं आती है, तो यह मानना मुश्किल नहीं होगा कि काँग्रेस पार्टी के अन्य सक्षम नेता उभरने लगेंगे और श्री गाँधी के नेतृत्व पर सवाल उठाएँगे। काँग्रेस का विघटन हो सकता है या नेताओं के अन्य समूह के साथ अहम पुनर्गठन का दौर चल सकता है।

काँग्रेस पार्टी अपने भीतर होने वाले इस तरह के विनाशकारी परिवर्तनों से परिचित है।

आखिरकार, श्री राहुल गाँधी की दादी श्रीमती इंदिरा गाँधी ने भी वर्ष 1969  में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस को विभाजित कर काँग्रेस (इंदिरा) के उस पार्टी के अग्रदूत का गठन किया था, जिसका नेतृत्व आज श्री गाँधी के पास है। मोरारजी देसाई, बाबू जगजीवन राम, पी.वी. नरसिम्हा राव और ऐसे ही तमाम अन्य लोगों के नाम अब कहाँ हैं, जिन्हें पार्टी से बाहर फेंक दिया गया और भूला दिया गया।

राहुल गाँधी लंबे समय से "भेड़िया आया-भेड़िया आया" चिल्ला रहे हैं और अब यह केवल कुछ समय की बात है, उसके बाद मतदाता उनकी किसी भी बात पर विश्वास करना बंद कर देंगे। जैसे कि पुरानी कहावत है, श्री गाँधी भी कुछ लोगों को हर बार मूर्ख बना सकते हैं या वे कुछ देर के लिए सभी लोगों को मूर्ख बना सकते हैं लेकिन वे निश्चित रूप से हर बार सभी को मूर्ख नहीं बना सकते!

श्रीमती सोनिया गाँधी ने हाल ही में जिस नेहरू विरासत की बात की थी क्या राहुल गाँधी उसकी आखिरी कड़ी है?

क्या राफेल की इस तरह की एक और कथा बन जाएगी जो कहे  "राजकुमार के पास पहनने के लिए कपड़े नहीं है"?

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लेखक कार्यकारी कोच और एंजेल निवेशक हैं। राजनीतिक समीक्षक के साथ वे गार्डियन फार्मेसीज के संस्थापक अध्यक्ष भी हैं। वे 6 बेस्ट सेलर पुस्तकों – रीबूट- Reboot. रीइंवेन्ट Reinvent. रीवाईर Rewire: 21वीं सदी में सेवानिवृत्ति का प्रबंधन, Managing Retirement in the 21st Century; द कॉर्नर ऑफ़िस, The Corner Office; एन आई फ़ार एन आई An Eye for an Eye; द बक स्टॉप्स हीयर- The Buck Stops Here – लर्निंग ऑफ़ अ # स्टार्टअप आंतरप्रेनर और Learnings of a #Startup Entrepreneur and द बक स्टॉप्स हीयर- माय जर्नी फ़्राम अ मैनेजर टू ऐन आंतरप्रेनर, The Buck Stops Here – My Journey from a Manager to an Entrepreneur. के लेखक हैं।

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