Tuesday, 5 February 2019

इंदिरा गाँधी – आज कितनी प्रासंगिक हैं?



अंतत: काँग्रेस पार्टी द्वारा प्रियंका वढेरा (वाड्रा) को औपचारिक रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश के केवल महासचिव के रूप में नियुक्त कर ही दिया। जैसे ही वे इस दौड़ में शामिल हुईं, वैसे ही विपक्षियों की टिप्पणियाँ आना भी शुरू हो गईं!
ज़ाहिरन काँग्रेसी कार्यकर्ता गले-गले तक पानी में डूबे हुए हैं और ऐसे में अब वे प्रियंका वढेरा और इंदिरा गाँधी के बीच कुछ समानताएँ खोज रहे हैं। श्रीमती वढेरा (वाड्रा) इस उम्मीद से लखनऊ काँग्रेस कार्यालय के उसी कमरे में रहेंगी, जहाँ उनकी प्रसिद्ध दादी श्रीमती गाँधी रहती थीं, कि अतीत की उपलब्धियाँ किसी दर्पण की तरह भावी आशाओं की प्रेरक बन सकें।
आइए हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि क्या श्रीमती गाँधी आज के संदर्भ में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, विशेष रूप से युवा भारतीयों और करोड़ों भारतीयों के लिए याकि यह भी कह सकते हैं कि भारतीयों की उस पुरानी पीढ़ी के लिए जो उनके शासन काल को जी चुकी हैं।
मुझे वह दौर बहुत स्पष्ट रूप से याद है, जब इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री थीं।
वर्ष 1971 में, जब उन्होंने बांग्लादेश के गठन में मदद की थीं और पाकिस्तान से दो अलग राष्ट्रों का निर्माण किया था, उस वाकये को मैं बहुत गर्व के साथ याद करता हूँ, मुख्यतः इसलिए चूँकि मेरे पिता सेना में थे और मुझे हजारों पाकिस्तानी कैदियों को प्रयागराज, पूर्व के इलाहाबाद में युद्ध शिविरों में देखने का अवसर मिला था। हम वर्ष 1971 की लड़ाई के दौर से गुज़रे थे, तब रात होने पर सारी लाइटें बंद कर दी जाती थीं और हवाई हमले के सायरन की आवाज़ हुआ करती थी। काँटेदार तार की बाड़ के उस पार रेतीले रंग की वर्दी में हजारों पाकिस्तानी सैनिकों को देखना हमारे सैनिकों और हमारे देश के लिए गर्व का स्रोत था।
वर्ष 1974 से वर्ष 1977 की अवधि के दौरान जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में था, मैंने 21 महीने के आपातकाल के दौरान उनका दूसरा पक्ष देखा।
मुझे बहुत अच्छे तरीके से याद है कि हम दिल्ली विश्वविद्यालय की विशेष बसों में बैठने में कितना डरा करते थे, कोई एक शब्द भी नहीं बोलता था, दोस्तों से बातें नहीं होती थीं, लगता अगर कोई हमारी बात सुन रहा हो तो वह अधिकारियों को जाकर बता देगा। उन बसों का वह भयानक सन्नाटा आज भी मेरे कानों में घूमता रहता है।
विपक्षी नेताओं और कॉलेज के युवा छात्रों की कहानियाँ फुसफुसाहट भरी टिप्पणियों में सब ओर फैल रही थीं कि कैसे रात को उन्हें उनके घरों से उठा लिया जाता और जेल में डाला जा रहा थआ। शक्तिशाली युवाओं की पुरुष नसबंदी की आशंका भयावह परिदृश्य था जिसे लेकर हम सभी चिंतिंत रहा करते थे। आपातकाल के दौरान प्रेस पर लगा सेंसर केवल प्रधान मंत्री और उनके बेटे संजय गाँधी की अविश्वसनीय उपलब्धियों को सामने ला रहा था। युवा छात्र होने के नाते केवल दृश्यमान सकारात्मकता यह थी कि कोई पावर ब्लैकआउट नहीं था और बसें समय पर चल रही थीं!
युवा छात्रों के रूप में, हम ऐसे भारत के लिए तरस रहे थे, जहाँ हम फिर एक बार बोल पाने के लिए स्वतंत्र होंगे।
यह वह इंदिरा गाँधी है जो मुझे याद है।
मुझे नहीं पता कि वे आज कितनी प्रासंगिक है या आज उनकी तानाशाही पद्धति कितनी प्रासंगिक है। यह भी पता करना होगा कि क्या आज के युवाओं को इंदिरा गाँधी याद हैं या क्या आज का युवा उन्हें समझ सकता है? क्या किसी को उनके द्वारा की गई सारी ज्यादतियाँ याद हैं? क्या उनकी उपलब्धियाँ और ज्यादतियाँ उस राष्ट्र के लिए प्रासंगिक हैं, जो आगे बढ़ गया है और जिसने अतीत को देखते रहना बंद कर दिया है?
“गरीबी हटाओ” का उनका प्रसिद्ध चुनावी नारा केवल एक नारा बनकर रह गया क्योंकि उस भावना को लागू करने के लिए कभी कोई कदम उठाया ही नहीं गया और गरीबी आज भी जस की तस है। राहुल गाँधी अपनी न्यूनतम आय गारंटी के साथ उस नारे की ओर मुड़े हैं, बिना इसका विचार किए कि यह कैसे लागू होगा या इसकी लागत क्या आएगी (जानकारों का अनुमान है कि इससे सकल घरेलू उत्पाद का 5% सालाना खर्च हो सकता है)। वे जानते हैं कि वादे करना बहुत आसान है और बाद में या तो वे अपनी सुविधानुसार उसकी व्याख्या कर सकते हैं या उससे इनकार कर देते हैं।
पिछले 50 वर्षों में दुनिया काफी बदल गई है। उस द्विध्रुवीय दुनिया से जिसमें हमें संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएसए) या संयुक्त राष्ट्र संघ- सोवियत संघ समाजवादी गणराज्य (यूएसएसआर) की दो विचारधाराओं के बीच चयन करना था या कागज पर गुटनिरपेक्ष या तटस्थ बने रहना था और दो गटों में से किसी एक की ओर झुकना था, हम बहुत आगे निकल आए हैं। सोवियत संघ का विघटन कई स्वतंत्र राष्ट्रों में हो गया है और ट्रम्प तले संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएसए) की सारी ताकत उसकी अपनी सीमाओं में सिमट गई है। राष्ट्रवादियों को सत्ता के लिए वोट दिया जा रहा है और हर नेता से अपेक्षा की जा रही है कि वे अपने राष्ट्र के लिए ख़ास जगह बनाएँ, न कि किसी गट की ओर झुकें। लोग थक गए हैं और नेताओं द्वारा किए गए वादों से तंग आ चुके हैं और वे एक बदलाव चाहते हैं।
इंदिरा गाँधी के बाद भारत में बहुत नाटकीय बदलाव आए हैं। अब देश बहुत अधिक समृद्ध हैं और युवाओं के सामने रोजगार के अधिक अवसर हैं। करोड़ों भारतीय अब खुद को दुनिया के नागरिक के रूप में समझते हैं, न कि किसी समाजवादी देश के नागरिक के रूप में, जो सोवियत संघ से करीब से जुड़ा हो और जिसे जीवन में आगे बढ़ने के लिए हमेशा सरकार का मुँह तकते रहना हो।
काँग्रेस पार्टी भी पिछले 50 वर्षों में बदल गई है। वह पूर्व में जो थी, अब उसकी केवल एक कमजोर छाया भर रह गई है। पार्टी ने अपने सारे बल स्थान नष्ट कर दिए हैं और केवल गठबंधन सहयोगियों पर भरोसा करना सीख लिया है। नेतृत्व कमजोर और उदासीन हो गया है और ऐसे हालात में जब पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच श्रद्धा -आदर नहीं रहा है, उनके मन में अतीत के नेताओं के प्रति निष्ठा भाव जागृत कराना और भी आवश्यक हो जाता है, हालाँकि ऐसा होना काफ़ी संदिग्ध है क्योंकि यह समझना मुश्किल है कि क्या उनमें इतने कद्दावर नेताओं को समझने या उनकी पहचान करने की कुवत्त है? जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी के अलावा काँग्रेस पार्टी के पास वास्तव में ऐसा कोई प्रतिष्ठित नेता नहीं बचता जिसे वे आदर्श मान सकें। राजीव गाँधी को उनकी माँ की हत्या के बाद गहरी सहानुभूति से उपजा जनादेश मिला था, लेकिन वे उस अति महत्वपूर्ण जनादेश का उपयोग करने में सक्षम नहीं थे।
नुमायान वारिस राहुल गाँधी अपनी पहली दो संसदीय पारियों को बर्बाद कर चुके हैं जब उनकी ख़ुद की सरकार सत्ता में थी और तब उन्होंने वस्तुतः कुछ अध्यादेशों को फाड़ने के अलावा और कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं किया, जिसके लिए उनकी अपनी ही सरकार को बड़ी शर्मिंदगी झेलनी पड़ी थी। वर्तमान लोकसभा में भी उन्होंने काँग्रेस अध्यक्ष के तौर पर अपने औपचारिक अभिषेक हो जाने तक कुछ नहीं किया।
इसका भी परीक्षण होना चाहिए कि राहुल गाँधी ने अपने संसदीय क्षेत्र अमेठी या अपनी माँ के रायबरेली संसदीय क्षेत्र के लिए क्या किया है। उनके पास दिखाने के लिए ऐसा कुछ नहीं है, जो उन्होंने लोगों के लिए हासिल कमाया हो। इसकी बहुत संभावना है कि आने वाले चुनावों में काँग्रेस दोनों सीटों पर हार जाए।
एक मतरबा जब राहुल गाँधी मजबूती से मैदान में उतरे थे, तब भी उनके पास कोई ख़ास तय कार्यसूची (एजेंडा) या खेल की योजना (गेम प्लान) नहीं थी और उन्होंने हर संभव मौके पर प्रधानमंत्री को गाली देना शुरू कर दिया था। वे जानते थे कि वे बेसिर-पैर की बक़वास कर रहे हैं, पर उन्होंने खुद की ही स्वीकारोक्ति से राफेल विवाद को बिना किसी सबूत के ठूँस दिया। उनके पास कोई नया विचार नहीं है और संभवत: उन्हें लगता है कि उनकी बहन श्रीमती वढेरा (वाड्रा) खेल परिवर्तक (गेम चेंजर) होंगी,जो खेल की दिशा बदल देंगी और जिस कठिन परिस्थिति में वे आज हैं, उसमें से उन्हें निकाल सकेंगी।
चुनावों के ठीक पहले के इन कुछ महीनों में प्रियंका गाँधी वास्तव में क्या कर सकती हैं? वे उस रिले दौड़ की अंतिम धावक हैं जिसके पहले तीन धावकों ने उन्हें पिछलगा कर दिया है और अब उनसे अंतिम रेखा के समीप पहुँचे दूर के धावक को हराने के लिए गति को अविश्वसनीय तरीके से बढ़ाने की उम्मीद की जा रही है!  बैटन (छड़ी) उन्हें सौंप दी गई है।
क्या ऐसा नहीं लगता कि चुनावों के बाद का पतन उनके मत्थे मढ़ने के लिए उन्हें लाया गया है ताकि युवराज के ताज को ठेस न पहुँचे और वह अगले पाँच सालों तक इसी तरह गड़बड़ी करता रहे और बहन ने जो लाज रख ली उसके साथ फिर खिलवाड़ कर सके?
क्या दादी इंदिरा गाँधी, राहुल गाँधी और प्रियंका वढेरा (वाड्रा) को यह चुनाव जीतने में मदद कर सकती हैं? क्या उनका नाम और तस्वीरें मतदाताओं को काँग्रेस पार्टी के पक्ष में अपना कीमती वोट डालने के लिए प्रेरित करेंगी? क्या उनका नाम राहुल गाँधी को काँग्रेस पार्टी के नेता के रूप में विश्वसनीयता का आभास दिलाने में मदद करेगा?
बहुत अप्रिय।
क्या काँग्रेस ने अपना ब्रह्मास्त्र निकाल लिया है जो विपक्ष को नष्ट करते हुए खुद ही विनाश का रास्ता अपना लेगा? या यह साधारण दिवाली की आम रोशनी है कि जिसे अंधेरे आकाश में कुछ क्षण की चाँदनी बिखेरने के लिए लगाया गया है?
अब यह तो समय ही बताएगा।
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लेखक कार्यकारी कोच और एंजेल निवेशक हैं। राजनीतिक समीक्षक और टीकाकार के साथ वे गार्डियन फार्मेसीज के संस्थापक अध्यक्ष भी हैं। वे 6 बेस्ट सेलर पुस्तकों – द ब्रांड कॉल्ड यू- The Brand Called You रीबूट- Reboot. रीइंवेन्ट Reinvent. रीवाईर Rewire: 21वीं सदी में सेवानिवृत्ति का प्रबंधन, Managing Retirement in the 21st Century; द कॉर्नर ऑफ़िस, The Corner Office; एन आई फ़ार एन आई An Eye for an Eye; द बक स्टॉप्स हीयर- The Buck Stops Here – लर्निंग ऑफ़ अ # स्टार्टअप आंतरप्रेनर और Learnings of a #Startup Entrepreneur and द बक स्टॉप्स हीयर- माय जर्नी फ़्राम अ मैनेजर टू ऐन आंतरप्रेनर, The Buck Stops Here – My Journey from a Manager to an Entrepreneur. के लेखक हैं। 
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